बुधवार, 29 जून 2011





दास्तान-ए-चवन्नी
मैं चवन्नी हूं...मैं अगर रुपए से निकाल ली जाती थी ...तो रुपया अधूरा रह जाता था....लोगों की जेब में लंबे वक्त मेरा राज रहा है...यकीन नहीं हो तो अपने बड़े-बूढ़ों से पूछ लो...मुझे लेकर वो अपने बच्चों के साथ पूरे मेले की शान का नजारा करते थे...मुझे खर्च करके वो खान पान भी कर लिया करते थे...हालांकि मुझसे छोटे भाई बहन भी थे...जो पहले ही मिटा दिए गए....लेकिन उनके मिटने का मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ा...क्योंकि मेरी अहमियत कुछ खास थी...मैं रुपए का चौथा हिस्सा थी...लेकिन अब मेरा अंतिम वक्त पास है....वैसे पितामह भीष्म की तरह शैय्या पर लेटकर अपने मरने का इंतजार तो मैं बहुत पहले से कर रही थी...लेकिन मौत इतनी पीड़ा दायक होगी ये मैनें सोचा नहीं था...मुझे मिटाने वालों ने मुझे खत्म करने से पहले ये भी नहीं सोचा, कि ना जाने कितनी बार रुपए में मुझे मिलाकर उन्होंने खुद औऱ परिवार की तरक्की के लिए सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाया होगा ....मरने से पहले ना जाने क्यों पुरानी बातें याद आने लगी हैं...मुझे कई बार नीचा दिखाने की कोशिश की गई...समाज में सबसे निकम्मे को मेरा नाम दिया गया और कह दिया चवन्नी छाप...मैं इस अपमान का घूंट पीकर भी जिन्दा रही...क्योंकि मुझे पता था मेरा अतीत...मेरा गौरवशाली अतीत....आज के ज़माने के लोग क्या जानेंगे कि मैंने भी आजादी के लिए लड़ाई की है... महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन से लोगों को जोड़ने के लिए मेरा सहारा लिया...और मैं ही थी उस वक्त सदस्यता की कीमत...उस समय मेरे साथ गांधी का नाम जोड़कर एक नारा भी दिया गया था...'खरी चवन्नी चांदी की, जय बोल महात्मा गांधी की'...आजादी की लड़ी ही वजह थी कि मुझे अंग्रेजों की टकसाल का बंदी बनाया गया...और मुझ पर अंग्रेजी छाप लगा दी गई...मुझे याद है आजादी को वो दिन भी...जब देश झूम रहा था....लेकिन मैं फिर भी अंग्रेजों की बंदी बनी रही...हालांकि जल्द ही लोगों को मेरी सुध आ गई...और आजादी के दस साल बाद 1957 में मुझे अंग्रेजों की दासता से मुक्त करा लिया गया....यही वो दौर था जब कागजों पर मुझे नया नाम भी मिला...इंडियन क्वाइंज एक्ट-1906 में बदलाव करते हुए मेरा नया नाम रखा गया पच्चीस पैसा...क्या दिन थे वो...इसके बाद तो देश में मेरा कद और बढ़ गया...मैं लोगों की आंखों का सपना बन गई...हालांकि कुछ जलने वालों ने उस वक्त भी मुझे मारने की साजिश रचते हुए मुझ पर 1968 में जानलेवा हमला किया था...जिससे उबरने में मुझे चार साल लगे...चार साल बाद 1972 में मैं फिर से आई...और मेरा खूब मान सम्मान हुआ...यही वजह है कि मुझे 1982 में हुए एशियाड खेलों का प्रतीक बनाया गया...मुझे वो दिन भी याद है जब मुझे स्टेनलेस स्टील के कपड़े मिले थे...साल 1988.....क्या दिन थे वो...अब जब अंत समय आ गया है...अनायास ही पुरानी बातें याद आ रही हैं...मेरी आंखों में आंसू है...बहुत लंबा वक्त बिताया है मैंने आपके साथ...अब इजाजत दीजिए एक वादे के साथ...खुद मुझे याद रखिएगा...और अपनी आने वाली पीढ़ियों को बताइएगा.... कितनी प्यारी थी चवन्नी...