बाकी दिन रुसवाई के हैं, मुंह खोले महंगाई है।।
इन आंखो को गौर से देखो, इनमें अब नहीं शिकायत है।
नीयत मान चुकी लाचारी, गम तो अब फर्ज अदाई है।।
घर-बार सबकुछ तो लुट गया, एक जान ही बस, बच पाई है।
लूटने वाले अब भी भूखे, इस मुल्क में यही खुदाई है।।
फिर भी अपना जिगर तो देखो, साथ खड़े हैं झंडे के।
शान तिरंगा है अपना, सबको ही आज बधाई है।।
उम्मीदों का दामन ऐसा, हाथ सरकता जाता है।
फिर भी आस लगी है उस पर, ये कैसी पेंच फंसाई है।।
हर झूठे वादों का सच, कड़वा भी था, मीठा भी था।
थाली में रोटी नहीं सही, सरकार को याद तो आई है।।
सपनों की बातें भी अक्सर, बोध है सच हो जाती हैं।
लेकिन भूखे पेट किसी को, नींद भी कब आ पाई है ।।